बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास का वर्णन कीजिए।
अथवा
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर -
किशोरावस्था गम्भीर उथल-पुथल की अवस्था है। गम्भीर उथल-पुथल का तात्पर्य संवेगात्मक अवस्था से है। बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था की अपेक्षा किशोरावस्था में संवेगात्मक अस्थिरता और अति संवेगात्मकता अपेक्षाकृत अधिक होती है। यदि बालकों में संवेगात्मक विकास का अध्ययन किया जाए तो पता चलता हैं कि बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था में संवेगात्मक स्थिरता किशोरवस्था की अपेक्षा अधिक पायी जाती है। हरलॉक का विचार है, “कि संवेगात्मक अस्थिरता और अति संवेगात्मकता का मुख्य कारण किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक और ग्रन्थीय परिवर्तन हैं। इस अवस्था में संवेगात्मक तनाव, संवेगात्मक अस्थिरता और अन्त में अति संवेगात्मक के लक्षण उत्पन्न होते हैं। अति संवेगात्मकता या संवेगात्मकता का सभी किशोरों में पाया जाना आवश्यक नहीं है प्राय: देखा गया है कि जिन किशोरों की शिक्षा-दीक्षा उपयुक्त ढंग से चलती है, उनमें इस प्रकार के लक्षण अपेक्षाकृत कम मात्रा में पाए जाते हैं। हरलॉक (1978) ने अपने अनुसंधानों के आधार पर वर्णन करते हुए लिखा है कि किशोरवस्था के प्रारम्भ में संवेग बहुधा तीव्र होते हैं, वह अभिव्यक्ति में नियन्त्रित भी नहीं होते हैं, यह संवेग नियमित भी नहीं होते हैं लेकिन विकास के प्रत्येक वर्ष के बढ़ने के साथ-साथ संवेगात्मक अभिव्यक्ति में उन्नति दिखाई देती है।
इस दिशा में हुए अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि किशोरावस्था में अति संवेगात्मकता केवल पूर्व किशोरवस्था में ही अधिक होती है। इसके बाद धीरे-धीरे उनकी अति संवेगात्मकता सामान्य संवेगात्मक अभिव्यक्ति में परिवर्तित होती जाती है। किशोरावस्था की अन्तिम अवधि में भी कुछ नई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनके फलस्वरूप संवेगात्मक तनाव पुनः एक बार बढ़ जाता है। इस अवधि की अधिकांश समस्याएँ सेक्स और रोमांस से सम्बन्धित होती हैं। अध्ययनों में यह देखा गया है कि किशोरों का सेक्स और रोमांस का जीवन यदि सामान्य और सरल ढंग से चलता रहता है तो उनका जीवन अति सुखद होता है।
संवेगात्मक प्रतिमान
1. क्रोध - किशोरावस्था में बालक को उस समय क्रोध अधिक उत्पन्न होता है जब उसे चिढ़ाया जाता है, आलोचना की जाती है या उसके सामने लेक्चर झाड़ा जाता है अथवा जब उनकी हँसी उड़ाई जाती है।
2. भय - किशोरावस्था के प्रारम्भ होने तक किशोर यह समझने लगता है कि बहुत सी चीजें जिनसे वह डरता था, वह उसके लिए हानिकारक नहीं हैं। इस विचारधारा के कारण उसके बाल्यावस्था के अनेक भय दूर हो जाते हैं। इस अवस्था में उसमें कुछ नये भय उत्पन्न होते हैं, जैसे- अँधेरे में एकान्तवास का भय, रात में अकेले रहने का भय आदि ।
3. ईर्ष्या - ईर्ष्या को शैशवावस्था का संवेग समझा जाता है परन्तु यह एक बार पुनः किशोरावस्था के प्रारम्भ में अधिक मात्रा में पाया जाता है। इस अवस्था में किशोर बहुधा उन बालकों से ईर्ष्या रखते हैं जिन्हें अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती हैं अथवा जिन्हें उनकी अपेक्षा अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती है, जिनसे वह ईर्ष्या रखता है, वह उनका मजाक उड़ाता है, आलोचना करता है, आदि।
4. जिज्ञासा - किशोरवस्था तक बालक की प्राकृतिक जिज्ञासा का दमन वातावरण के प्रतिबन्धों के कारण हो जाता है। किशोरावस्था की वृद्धि के साथ-साथ यह दमन बढ़ता जाता है। किशोरावस्था के नए-नए परिवर्तन अवश्य उसकी जिज्ञासा को उद्दीप्त करने का कार्य करते है, अतः केवल कुछ उद्दीप्त के प्रति ही वह जिज्ञासा प्रदर्शित करता है। किशोरावस्था में आयु वृद्धि के साथ-साथ विपरीत लिंग के लोगों के सम्बन्ध में जिज्ञासा बढ़ती जाती है क्योंकि नये लोगों से ही उसे नए अनुभव अधिक और रुचिपूर्ण प्राप्त होते हैं।
5. स्नेह - किशोर उस व्यक्ति के प्रति अधिक स्नेह प्रदर्शित करते है जिससे उसके सुखद सम्बन्ध होते हैं या जो उससे स्नेह करता है, उसकी सुरक्षा करता है। किशोरवस्था में आयु वृद्धि के साथ-साथ किशोरों का स्नेह विपरीत लिंग के लोगों की ओर केन्द्रित होता चला जाता है । परन्तु यह कोई नियम नहीं है कि हमेशा विपरीत लिंग के लोगों के साथ किशोरों के सम्बन्ध स्नेहपूर्ण ही हों । कई बार वह अपने ही लिंग के परिचित या मित्रों की मण्डली बनाकर उससे ही स्नेह प्राप्त करता है।
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